One more poetic reference from the diary of my scholastic days...
रुखसार पे तेरे, अश्क न आएं तो अच्छा है,
ग़र आ गए, लबों से लग जाएँ तो अच्छा है।
'तमन्ना' मेरी, अश्क बन फिरता रहूँ
रुखसार पे तेरे, लबों से लग जाने की तमन्ना है।।
गिला नहीं है मुझको, 'तनहा' सा हूँ मैं,
इंतज़ार है, तमाम उम्र है, एहसास भी है।
ज़िद है तो बस, आंखों से निकलने की तेरी,
रुखसार से चल, लबों में समां जाने की 'तमन्ना' है।।
अजनबी ही सही इस शहर में मैं मगर,
निकला हूँ मुसाफिर कि तरह तेरे दर के लिए।
उम्मीद है अश्क बन जाने कि मुझे, "हमसफ़र"
कुछ पल के लिए ही सही, बन जाने की 'तमन्ना' है।।
कि यकीं नहीं है मुझको, तेरा प्यार भी नसीब होगा,
चल रहा हूँ तो बस उम्मीद लिए, कि कभी तो
अश्क बन निकलूंगा तेरी आंखों से 'मोहब्बत',
दरिया की तरह, समंदर में मिल जाने की 'तमन्ना' है।।
रेमिश
सनातनी का संकट: विश्वास और राजनीति का टकराव
4 months ago
2 comments:
वाह क्या बात है। एक तो काफ़ी दिन बाद आपने यहां कुछ लिखा और लिखा भी तो एकदम धांसू।
ह्म्म
तो मिज़ाज़ में आशिक़ी भी शामिल है तेरे ए रेमिश,
मिले गर मंजिल इस आशिक़मिज़ाज़ी को तो अच्छा है
nice one..
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